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यूनिफॉर्म सिविल कोड, भारत: सम्पूर्ण जानकारी
प्रिय पाठकों, आप अभी यूनिफॉर्म सिविल कोड, भारत: भाग 2 – शाह बानो केस (1985) और इससे जुड़ी सारी बातें को पढ़ने और जानने जा रहे है। लेकिन क्या आपने इसके पहले भाग को पढ़ा है? यदि हां तो आप इसको अभी पढ़ सकते है और यदि आप भी तक भाग 1 को नहीं पढ़े है तो नीचे दिए गए लिंक्स पर क्लिक कर पहले वाले भागों को पढ़े।
परिचय- “समान नागरिक संहिता – भारत” फुल केस स्टडी
भाग 1- यूनिफॉर्म सिविल कोड, भारत: भाग 1 – अनुच्छेद 25, 32 और 44
अब आप आज के इस लेख (भाग 2) को पढ़ सकते है।
अस्वीकरण
इस लेख में दी गई सारी जानकारी वैध है, और वेल डॉक्यूमेंटेड भी है। ये सारी की सारी बातें आप नवभारत टाइम्स में पढ़ सकते है। हम आपको ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि इस लेख की बातें हमारी अपनी तरफ से गढ़ी हुई बातें नहीं है। अंत: ये मालूम हो कि हम (मैं या हमारी वेबसाइट) सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करते हैं और हम सभी अपने महान देश (भारत) के संविधान का पालन करते हैं। इसलिए हम अपने सभी पाठकों से यह भी अनुरोध करते हैं कि इस प्लेटफॉर्म के किसी भी लेख की किसी भी शब्द अथवा पंक्ति को नकारात्मक तरीके से भी न लें।
शाह बानो केस (1985)
इस केस के बारे आप कुछ भी पढ़े उससे पहले आपको इसके कुछ उर्दू के टर्म्स (शब्दों) को समझना होगा जो कि आप इस मामले में आगे आने वाले उन टर्म्स (शब्दों) को आसानी से समझ सके।
• तलाक-ए-बिद्दत: तीन तलाक (तलाक – तलाक – तलाक)
• मेहर की रकम: शादी के समय में जो धन दिया गया होता है।
• इद्दत की मुद्दत: तलाक के अगले 3 महीनों तक तलाकशुदा महिला की देखरेख की जिम्मेदारी शौहर की होती है। (तलाक के बाद आम तौर पर 3 महीने)
आइए जानते हैं कि यह पूरा मामला क्या था। कहानी शुरू होती है 70 के दशक से। इंदौर में एक बड़े वकील साहब हुआ करते थे। नाम था मोहम्मद अहमद खान। शाह बानो उन्हीं की पत्नी थीं। अब बाद में, 1975 में मोहम्मद अहमद खान ने एक कम उम्र की लड़की से शादी (दूसरी शादी) कर ली और 43 साल तक साथ रही अपनी बीवी शाह बानो को उनके 5 बच्चों समेत घर से निकाल दिया। एक झटके में एक 59 साल की महिला बेघर हो गई। वकील साहब बच्चों की परवरिश के लिए कभी-कभी कुछ पैसे दे दिया करते थे लेकिन शाह बानो नियमित तौर पर हर महीने गुजारा-भत्ता की मांग कर रहीं थीं। इसे लेकर दोनों में अक्सर विवाद होते रहते थे। 6 नवंबर 1978 को मोहम्मद अहमद खान ने शाह बानो को तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) दे दिया। मेहर की रकम का भुगतान कर खान ने दो टूक कह दिया कि अब आगे एक नया पैसा नहीं देंगे।
तीन तलाक के बाद शाह बानो ने खान से हर महीने गुजारा भत्ता की मांग को लेकर अदालत का रुख किया। मोहम्मद अहमद खान ने दलील दी कि तीन तलाक के बाद इद्दत की मुद्दत तक ही तलाकशुदा महिला की देखरेख की जिम्मेदारी शौहर की होती है, उसके बाद नहीं। मुस्लिम महिला को तलाक के बाद गुजारा भत्ता नहीं दिया जा सकता है। एक बात ये भी है कि अगर इस अवधि के दौरान महिला की देखरेख की जिम्मेदारी तलाक देने वाले पति की होती है। अगर महिला उस वक्त प्रेग्नेंट हो तो इद्दत की मुद्दत बच्चे के जन्म तक मानी जाती है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड
दरअसल, भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक, तलाक के बाद आम तौर पर 3 महीने ‘इद्दत की मुद्दत’ कहलाती है। इस अवधि के दौरान महिला की देखरेख की जिम्मेदारी तलाक देने वाले पति की होती है। अगर महिला उस वक्त प्रेग्नेंट हो तो इद्दत की मुद्दत बच्चे के जन्म तक मानी जाती है। इद्दत की मुद्दत एक तरह का वेटिंग पीरियड है ताकि इस दौरान तलाकशुदा महिला चाहे तो दूसरी शादी कर सके।
मैजिस्ट्रेट कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट तक का शाह बानो के पक्ष में फैसला आया। खान ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। दलील दी गई कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की जिस धारा 125 के तहत गुजारे-भत्ते की मांग (शाह बानो के द्वारा) की गई है वह मुस्लिमों पर लागू ही नहीं होती क्योंकि यह मुस्लिम पर्सनल लॉ से जुड़ा मामला है। ये मामला मुस्लिम पर्सनल लॉ से जुड़ा है का मतलब है ये है कि ये शादी और तलाक की बात मुस्लिम समुदाय के परिवार की थी और इसके लिए जो कानून है वो मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार ही है।
अब सुप्रीम कोर्ट में मामला 5 जजों की संविधान पीठ में पहुंच गया। जहां वकील साहब अपनी दलील में ये कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की जिस धारा 125 के तहत गुजारे-भत्ते की मांग (शाह बानो के द्वारा) की गई है वह मुस्लिमों पर लागू ही नहीं होती क्योंकि यह मुस्लिम पर्सनल लॉ से जुड़ा मामला है। वहीं शाह बानो ने अपनी दलील में सुप्रीम कोर्ट में कहा कि
“मुझे हमारे अधिकारों पर भी वही समानता चाहिए जो हिंदू महिलाओं को प्रात है।”
शाह बानो (सुप्रीम कोर्ट में)
अब आप ये सवाल करेंगे कि हिंदू महिलाओं को क्या प्राप्त है? तो इसका जवाब आपको अगले भाग 3 में पढ़ने को मिलेगा। अभी इस केस में आगे बढ़ते है।
शाह बानो केस पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
आखिरकार, 23 अप्रैल 1985 को तत्कालीन सीजेआई वाईवी चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली कॉन्स्टिट्यूशनल बेंच ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए मोहम्मद अहमद खान को आदेश दिया कि वह शाह बानो को हर महीने भरण-पोषण के लिए 179.20 रुपये दिया करेंगे।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में साफ कहा कि तलाक के बाद बीवी को मेहर देने का मतलब यह नहीं कि उसे गुजारा-भत्ता देने की जरूरत नहीं है। गुजारा-भत्ता तलाकशुदा पत्नी का हक है। शीर्ष अदालत ने सरकार से भी ‘समान नागरिक संहिता’ की दिशा में आगे बढ़ने की अपील की। इससे पहले भी कई मौकों पर कोर्ट समान नागरिक संहिता बनाने की सलाह दे चुका था। संविधान के अनुच्छेद 44 में भी कहा गया है कि राज्य भविष्य में समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की कोशिश करेगा। और इसके बारे में हमने अपने इस केस स्टडी के भाग एक में अच्छे से पढ़ा भी है।
कट्टरपंथियों के आगे झुक गई राजीव गांधी सरकार और कर दी ऐतिहासिक गलती
शाह बानो केस में जैसी ही माननीय सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आया, मामले में समान नागरिक संहिता को लेकर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तिलमिला गया। फिर क्या था, मुस्लिम कट्टरपंथियों ने सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को इस्लामी मामलों में दखल बता विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिया।
अब आगे बाद में, सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) कानून 1986 पारित कर दिया। कानून में ये कहा गया कि
‘हम मुस्लिमों के पर्सनल लॉ में किसी प्रकार का इंटरफेयर नहीं करेंगे।’
राजीव गांधी सरकार के कानून
शाह बानो अदालती लड़ाई जीतने के बाद भी हार गईं। राजनीति ने उन्हें हरा दिया। लेकिन मुस्लिम्स राजीव गांधी से खुश हो गए। कट्टरपंथियों के आगे राजीव गांधी सरकार के सरेंडर ने उन्हें हरा दिया। 6 साल बाद 1992 में ब्रेन हेमरेज से उनकी (शाह बानो) मौत हो गई।
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पढ़े: यूनिफॉर्म सिविल कोड, भारत: भाग 1 – अनुच्छेद 25, 32 और 44
पढ़े: यूनिफॉर्म सिविल कोड, भारत: भाग 2 – शाह बानो केस (1985)
पढ़े: यूनिफॉर्म सिविल कोड, भारत: भाग 3 – The Hindu Marriage Act, 1955 (हिन्दू विवाह अधिनियम)